बारूद के धमाकों से गूंजा मेनार गांव : रात भर तोपें और बंदूकें आग उगलती रहीं, युद्ध का परिदृश्य जीवन्त हो उठा, 200 गांव से लोग देखने पहुंचे ऐतिहासिक पर्व जमराबिज,
अनवरत 425 वर्षों से निभा रहे हैं ग्रामीण यह परंपरा
मुगलों पर विजय के उपहार में तत्कालिन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि, शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार किया प्रदान
गांव के लोग जो देश-विदेश में है कार्यरत, इस मौके पर खास तौर से पहुँचते है गांव
वल्लभनगर। होली रंगो का पर्व है लेकिन मेवाड़ में इस दिन से जुड़े स्मृतियों के कई रंग हैं कोई गौरव से जुड़ा है तो कोई सदभाव और प्रेम से संबंध रखता है। लेकिन उदयपुर जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 48 पर दो सरोवरों ब्रह्म सागर, ढंड सागर के बीच स्थित मेहतागढ़ मेनार में होली के तीसरे दिन शौर्य और इतिहास स्मृति की झलक देखने को मिली। यहाँ होली के बाद तीसरे दिन यानी बुधवार कृष्ण पक्ष द्वितीया को बारूद से होली खेली गयी, जिसमें तलवारों और बंदूकों की आवाज से हूबहू युद्ध का दृश्य देखने को मिला। ये परंपरा मेनारवासी पिछले सवा 425 साल से अनवरत निभाते आ रहे है।
बुधवार रात एक के बाद एक कई तोप आग उगल रही थीं, तड़ातड़ बंदूकें चल रही थीं। उदयपुर के गांव मेनार में यह दृश्य किसी युद्ध का नहीं, बल्कि होली के जश्न का था। मेनार में देर रात तोपों और बंदूकों ने जमकर आग उगली। हर तरफ तलवारें चलती दिखीं। मौका था शौर्य पर्व जमरा बीज का, जो बड़े धूमधाम के साथ मनाया गया। वहीं गांव के युवा जो दुबई, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में रहते हैं, जो इस मौके पर सभी गांव पहुंच जाते हैं। पूरा गांव सतरंगी रोशनीयो से एक दुल्हन की तरह सजा धजा। जमराबीज की रात मेनार कस्बा दिपावली की रंगत में रंगा रहा। रोशनी से जगमग कस्बे में आतिशबाजी के साथ बंदूकों व तोपों के धमाके आधी रात तक ओंकारेश्वर चौक में गूंजते रहे। तलवारों की गैर व शक्ति प्रदर्शन से टन टन करती ध्वनि युद्धक्षेत्र का अहसास करा रही थी, तोप, बंदूकें आग उगल रही थी। सफेद कपड़ों, कसूमल पाग के साथ पारंपरिक मेवाड़ी पोशाक में किशोर और युवा बड़े-बुजुर्ग भी हाथों में तलवारे लिए जबरी गैर रम रहे थे। शौर्य पर्व जमराबीज का यह पारंपरिक आयोजन मेवाड़ में मुगलों की टुकड़ी पर विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। जश्न में रणबांकुरे रणजीत ढोल की थाप पर गैर करते हैं। कभी खांडे टकराए तो तलवारों की खनक हवाई फायर के साथ बंदूकों और तोपों ने आग उगली। आधी रात बाद तक यही नजारे देखने को मिले। हजारों लोग रात 8 बजे से मेनार पहुंचे जो भोर तक डटे रहे। यहां दिनभर रणबांकुरे रणजीत ढोल बजते रहे। शाही लाल जाजम बिछी, जिस पर अमल कसुमे की रस्म हुई, इसमें 52 गांवो से मेनारिया ब्राम्हण के पंच मौतबीर इसके साक्षी बने। राजस्थान के इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी मेनार गांव का उल्लेख अपनी पुस्तक द एनालिसिस ऑफ राजस्थान में मनिहार नाम के गांव से किया है। इस गांव का संबंध महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह से भी जुड़ा है।
बंदूकों, तोपो से हुआ युद्ध सा माहौल
रात 10 बजे बाद सभी पूर्व रजवाड़े के सैनिकों की पोशाकों धोती कुर्ता, कसुमल पाग से सजे धजे ग्रामीण अलग अलग रास्तो से ललकारते हुए बंदूक और तलवार लेकर बंदूक दागते हुए सेना के आक्रमण किये जाने के रूप मे चारभुजामंदिर के सामने गांव का मुख्य बाजार ओंकारेश्वर चौक के यहाँ पहुँचे, जहाँ ग्रामीणों ने बंदूक और तोप से गोले दागे तथा पटाखों से आतिशबाजी से आग की लपटें निकली जो काफ़ी ऊँचाई तक जा रही थी, तोपो, बंदूकों की गर्जना 5 किलोमीटर दूर तक सुनाई दे रही थी। इसके बाद फेरावतों के इशारे पर एक साथ एक समय पर बंदूकों को दागते हुए तलवारों को लहराते हुए एक साथ कूच किया, तब पांचों रास्तों से गांव बंदूकों, तोपो की आवाज से गूंज उठा, तब युद्ध का परिदृश्य जीवन्त हों उठा और इस बीच पटाखों के धमाकों से दहल उठा ओंकारेश्वर चौक। उसके बाद जैन समुदाय द्वारा अबीर-गुलाल से रणबांकुरों का स्वागत किया गया।
मुख्य चौक पर पटाखों की गूंज, आग के गोले, गरजती बंदूकें, चमकती, खनकती शमशीरों के बीच सिर पर कलश लिए महिलाएं वीर रस के गीत गाती चल रही थी। हवाई फायर, गुलाल बरसने के साथ रणजीत ढोल बजते रहे एवं पुरुष आतिशबाजी करते हुए थम्ब चौक की ओर बोचरी माता की घाटी पर 300 मीटर का रास्ता एक घण्टे मे तयकर पहुँचे, जहाँ बोचरी माता की घाटी पर कतारबद्ध जनसमूह के बीच मेनार के शौर्य व वीरता एवं मेनारिया समाज का इतिहास का वाचन किया गया। इसी दौरान गांव की महिलाओं व युवतिया थम्ब चौक पर फेरावतो की कड़ी सुरक्षा में मुख्य होली को शीतल/अर्घ्य करने की रस्म अदा की। यहां से सभी लोग ढोल की थाप पर दोबारा ओंकारेश्वर चौक पर पहुँचते है। जहां ग्रामीणों के एक हाथ मे तलवार और दूसरे हाथ मे खांडा (लकड़ी) लेकर तलवारों की जबरी गैर ढोल की थाप पर खेली गयी जिसे देखकर हर कोई दंग रह जाता है। मेनार का इतिहास गौरवशाली है जिसको लेकर यहां का बच्चा बच्चा अभिभूत है और यहाँ हर बच्चों मे उत्साह, जोश एवं जुनून रहता है।
गैर होने के पश्चात शुरू हुआ तलवार और गोटा घुमाना
युवाओं, बुजुर्गों द्वारा एक से बढ़कर एक हेरणतंगेज जोशीले अंदाज़ मे दोनों हाथों मे तलवारें लेकर घुमायी गयी और आग के गोटे को घुमाए जिसे देखकर दर्शकों ने अपनी तालियों की गड़गड़ाहट से पूरे चौक को गुंजायमान कर दिया। इस आयोजन को लेकर घरों में विविध व्यंजन बनाये जाते है तथा मेहमाननवाजी होती है।
जमरबीज का गौरवशाली इतिहास, 425 सालों से निभा रहे परंपरा
बात तब की है जब मेवाड़ पर महाराणा प्रताप के निधन पश्चात अमर सिंह का राज्य था। उस समय मेवाड़ की पावन धरा पर जगह जगह मुगलो की छावनिया (सेना की टुकडिया) पड़ी हुई थी। इसी तरह मेनार में भी गाँव के पूर्व दिशा में मुगलो ने अपनी छावनी बना रखी थी। इस दौरान मुग़ल शासक अकबर ने अपने पुत्र को मेवाड़ पर आधिपत्य करने भेजा। जिसने जगह जगह चौकियां स्थापित की। मुगलों ने तकरीबन 10 वर्ष तक तक मेवाड़ को अपने अधीन करने की कोशिश की, लेकिन महाराणा अमर सिंह प्रथम से हमेशां मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। इसी समय मुगलों की मुख्य चौकी उठाला वल्लभगढ़ में स्थापित थी, जिसकी उप चौकी चित्तौड़ मेवाड़ के मुख्य मार्ग मेनार में स्थापित थी । महाराणा प्रताप के देहांत के पश्चात भींडर से शक्तावत व सलूम्बर से चूंडावत हरावल दस्ते की होड़ में सेनाएं कमजोर होने लगी थी। इधर, इन छावनियो के आतंक से नर नारी दुखी हो उठे थे। इस पर मेनारवासी मेनारिया ब्राह्मण भी मुग़ल छावनी के आतंक से त्रस्त हो चुके भगवान् परशुराम के वंशज एव महाराणा अमरसिंह के रक्षक कब तक सहते। जब मेनारवासियों को वल्लभनगर छावनी पर विजय का समाचार मिला तो गाँव के वीरो की भुजाये फड़क उठी, गाँव के वीर ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई। उस समय गाँव छोटा और छावनी बड़ी थी। समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया। इस कूटनीति के तहत होली का त्यौहार छावनी वालो के साथ मनाना तय हुआ। होली और धुलंडी साथ साथ मनाई गई। चेत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीय विक्रम संवंत 1657 की रात्रि को राजवादी गैर का आयोजन किया गया गैर देखने के लिए छावनी वालो को आमंत्रित किया गया। ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर बजाया गया। नंगी तलवारों, ढालो तथा हेनियो की सहायता से गैर खेलनी शुरू हुई। अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया। गाँव के वीर छावनी के सैनिको पर टूट पड़े। रात भर भयंकर युद्ध चला। ओंकारेश्वर चौक से शुरु हुई लड़ाई छावनी तक पहुँच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलो के आतंक से बचाया। मुगलों पर विजय के उपहार में तत्कालिन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी। यही नही, मेनारवासियों से 52 हजार बीघा जमीन पर लगान तक नही वसूला गया। मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह प्रथम ने मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया जो परंपरा आज भी कायम है। इसलिए मेनार के इतिहास के लिये यह शब्द कहे गए है :-
जमराबीज “मेणार” में, ओज तेज अपार।
धन्य होई एतास में, एकलिंग धरा “मेवाड़”।।
काट भगाया तुरकां ने, पाँच हासा खूंखार।
जण्या माई “वीरां” ने, झुंझ गया झुंझार।।
खड्गां रण ख़ंणकावता, करता मुगलां चौकी मेट।
ढमाके बामण खेलता, करग्या मुगलां रो आखेट।।
मोल कहे तुरकडो, जजियो दियो लगाय।
सिर हाटे भूमि मले, कटिया थूं कदी न पाय।।
निश्चिन्त रहो थें राणा, ओ पातशा कोई तोप।
भारी पड़ग्यो मुगलां पे, मेणार बामणा रो कोप।।
खेरोदा थाने से पुलिस जाप्ता रहा मौजूद
इस आयोजन को लेकर खेरोदा थानाधिकारी पवन सिंह मय जाब्ता मौजूद रहे और सारी व्यवस्थाए देखी। हालांकि इस पूरे आयोजन में गांव के ग्रामीण सारी व्यवस्थाए स्वयं देखते है, और किसी प्रकार की कोई घटना, दुर्घटना नहीं होती है। वही मुख्यमंत्री के ओएसडी लोकेश शर्मा, सांसद सीपी जोशी, एसडीएम गोविंद सिंह, तहसीलदार छगनलाल रेगर, विप्र सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील तिवारी, पद्मश्री से अलंकृत श्यामसुंदर पालीवाल, वल्लभनगर भाजपा प्रभारी हिम्मत सिंह झाला, विप्र फाउंडेशन जॉन 1ए प्रदेशाध्यक्ष केके शर्मा मौजूद रहे।
